ओ दो शतकों तक पराधीन रहने वालों |
क्या किया विचार कभी तुमने इस बारे में ?
क्या भूल गये हो योग्य किया है पीने के,
गुड़ घोल घोल कर किसने पानी खारे में ?
सत्तावन से सैंतालिस तक पड़तालो तो,
केवल बलि, कुर्बानी दिखलाई पड़ती है |
पर सैंतालिस से इक्कीसवीं शताब्दी तक,
स्वाधीन ज्योति बुझती दिखलाई पड़ती है ||
हिंदू मुस्लिम पहचान बना कर चलते हो,
मानव पर ख़ुद को कहना तुम्हें नही आता,
क्या इस स्वतंत्र, स्वाधीन हवा के झोंके में,
मिलजुल कर रहना रास नहीं तुमको आता?
हो भूल गए मानव तुम उन अवतारों को,
जिनको शहीद कह कर हम आज बुलाते हैं |
क्या नित्य नहीं हम उन धरती के पुत्रों की,
शिक्षा और आदर्शों की चिता जलाते हैं?
भारत का ऐसा रूप सोच कर नही मनुज,
सबने मिलकर स्वाधीन किया इसको होगा |
पश्चात किंतु उन सबकी इस कुर्बानी के,
आदर हम सबने कितना उन्हें दिया होगा?
हर वर्ष मन कर कुछ थोड़े से दिन विशेष,
तुम देशभक्त सबसे अव्वल बन जाते हो,
क्या याद कभी उन भारत माँ के वीरों की,
तुम आम दिनों में अपने मन में लाते हो?
हाँ वही आम दिन, जब कर तुम सब लोगों के,
रिश्वत लेने में तनिक भी नहीं हिलते हैं |
कर भ्रष्ट देश को, "है मेरा यह देश महान" ,
कहने वाले हर देश में कहाँ मिलते हैं ?
कुछ नहीं कर सकोगे भारत के लिए मनुज,
तुम तो केवल मिथ्या का ही दम भरते हो |
दे प्राण किया स्वाधीन जिन्होंने भारत को,
सत्कार कहाँ उनके सुकृत्य का करते हो?
Friday 28 August 2009
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