खै़र, सभी सुखी तो नहीं रह सकते।
तो फिर कौन पिएगा यह हालाहल,
दूसरों को अमृतपान का सुख देने के लिए?
कौन करेगा अस्थिदान,
वज्र सा कठोर हो दूसरों की रक्षा करने के लिए?
किसी ना किसी को तो आगे आना होगा,
अग्नि में खुद को तपाना होगा,
बलि वेदी पर शीश चढ़ाना होगा।
क्योंकि बिना मूल्य तो कुछ मिलता नहीं।
कौन है जो दूसरों के सुख का मूल्य अपने दुःख से चुकाए?
खुद अशांत रहकर दूसरों के जीवन में शांति लाए?
क्या यह ईश्वर का दायित्व है?
या उनका जो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की कामना करते हैं?
उनके सुख की भी, जो शायद उसके योग्य नहीं।
तो फिर कौन पिएगा यह हालाहल,
दूसरों को अमृतपान का सुख देने के लिए?
कौन करेगा अस्थिदान,
वज्र सा कठोर हो दूसरों की रक्षा करने के लिए?
किसी ना किसी को तो आगे आना होगा,
अग्नि में खुद को तपाना होगा,
बलि वेदी पर शीश चढ़ाना होगा।
क्योंकि बिना मूल्य तो कुछ मिलता नहीं।
कौन है जो दूसरों के सुख का मूल्य अपने दुःख से चुकाए?
खुद अशांत रहकर दूसरों के जीवन में शांति लाए?
क्या यह ईश्वर का दायित्व है?
या उनका जो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की कामना करते हैं?
उनके सुख की भी, जो शायद उसके योग्य नहीं।
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